सोमवार, 13 अगस्त 2012
दैनिक विस्वमित्र, कलकत्ता - पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम : कुमकुम के छींटे
लेखक : भागीरथ कांकाणी
प्रकाशक : इंडिया ग्लेजेज
लिमिटेड , १०/३ काशीनाथ
मल्लिक लेन, कोलकाता -
७०००७३
पृष्ठ संख्या : १४४
मूल्य : २०० रुपये |
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कुमकुम के छींटे साहित्य प्रेमी व्यवसायी भागीरथ कांकाणी की हिंदी एवं राजस्थानी भाषा में समय- समय पर लिखी गयी कविताओं का संग्रह है| है तो प्रथम संग्रह किन्तु बोलचाल की सरल भाषा में प्रणित इन रचनाओं में प्रौढ़ सौन्दर्य चेतना और प्रकृति -प्रेम का ऐसा जादुई आकर्षण है कि कोई भी पाठक इसे इता आद्यान्त पढ़े वगैर छोड़ना नहीं चाहेगा |कुछ कविताएं बच्चों के लिए भी विशेष रूप से लिखी गई है, इसलिए यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि पुस्तक सम्पूर्ण परिवार के लिए पठनीय तथा संग्रहणीय है | विशेष रूप से "आएगा जरुर " शीर्षक कविता में आशावादिता का ऐसा सन्देश है, जो कि मन के हर अँधेरे कोने को प्रकाशमान करने कि क्षमता रखता है | गाँव कि यादें, अपनी संस्कृति,भिखारिन, भूख, वाह रे कलकत्ता, धन सब कुछ नहीं, बेटी का बाप, बेटियाँ तथा राजस्थानी भाषा में "पिया मिलन री रुत आई", विशेष रूप से मन के तारों को झंकृत करने कि भरपूर सामर्थ्य से युक्त है | गाँव और शहर,देश तथा विदेश कि यात्रओं के दौरान प्राप्त अपने अनुभवों के आधार पर लेखक को अपनी रचनाओं की सृष्टी में निश्चय ही भारी सहयोग प्राप्त हुआ है, जिसका परिचय उनकी हर रचना में स्पष्ट मिलता है | कविता को मानव जीवन के निकट लाने के लिए भवानी प्रसाद मिश्र ने भी सरल भाषा के प्रयोग पर बल दिया है और यह कविता-संग्रह भी सरल भाषा में ही रचित है , जिसमे अनुभवों और भावों की अदभुत गहराई भी हर पंक्ति में दिखाई देती है | ऐसी पुस्तक का सार्वजनिक पुस्तकालयों में होना आवश्यक है, इसमें संदेह नहीं | मनीष कांकाणी द्वारा प्रस्तुत पुस्तक का रंगीन कलेवर भी बहुत सुन्दर बन पडा है और मुद्रण शैली भी सराहनीय है |
गुरुवार, 9 अगस्त 2012
मंगलवार, 7 अगस्त 2012
कुमकुम के छींटे
कोनी विसवास हुवे
थरप दियो भाटें ने
चढ़ावण लागग्यो
भाटों बण देवता पुजीजग्यो
आज बसंती हवा चली
बलखाती मलय बहार चली
बरखा आई
१५ जून,2010
स्पर्श
सागर में समर्पण का स्पर्श
कोलकत्ता
पहाड़ों की गोद में
देने लगता है
आँगन मे जँहा हैं कई सौन्दर्य पीठ
जहाँ चारों ओर
हरे- भरे खेत और सुन्दर वादियाँ
कल-कल करती गंगा - यमुना
जंगली फूल और हँसती हरियाली
बिखरा प्राकृतिक सौन्दर्य
बहते नाले और नाद करते झरने
खिली-खिली चाँदनी रातें
गुदगुदी सी मीठी सुनहली धूप
प्राणों को स्निग्ध करदेने वाली स्वच्छ हवा
पहाड़ों में बरसती
उस शुभ्र कान्ति को देख
मौन भी सचमुच मधु हो जाता है
मैंने गंगा
यमुना के गीत सुने है
गोधूली बेला में उसके मटमैले धरातल
को सुनहला और नारंगी होते देखा है
व्यस्तता के बीच
जब भी समय पाता हूँ
हिमालय की वादियों में चला जाता हूँ
होते हुए भी आँगन का पँछी हूँ
कुछ दिन हिमालय के आँचल में फुदक
कर वापिस लौट आता हूँ।
मेरी सुबह
मै प्रकृति के संग
मुझे सूरज उठाने आता है
ठंडी- ठंडी हवाएं
करती है
डालियाँ झुक-झुक कर
अभिनन्दन करती है
चमेली की खुशबू
करती है
कर चहक उठते हैं
उठते हैं
लिए गुंजन करते हैं
भरते हैं
कितना कुछ दिया है
किया है
बनाये हैं मेरे लिए
मेरे लिए
लगती है सुबह की घड़ी
की लड़ी।
आएगा जरूर
जब युद्ध और संघर्षों का
नाम नहीं होगा
इंसान की पलकों से
आँसू नहीं गिरेगें
प्यार का गीत
\
पहले किसी को बाद में
जाना तो सभी को
पड़ता है
लेकिन प्यार
इस दुनिया में सदा
अमर रहते हैं
युगों युगों तक
लोग उनके नामों को
याद रखते हैं
उनका सम्मान करते हैं
हमारे यहाँ
संतों ने प्यार बाँटा
सूर, तुलसी, रहीम ने
प्यार भरे गीत गुनगुनाए
हीर- राँझा और
सोहनी- महिवाल ने
मोहब्बत का गीत गाया
और इसी
प्यार और मोहब्बत के
चलते वे दुनिया में
अमर हो गए
अपने को अर्पित कर दें
भविष्य की पीढी को
आने वाली
शान्तिमय संस्कृति को
और सदा के लिए
अमर हो जाएँ
लोगों के होठों पर
लोगों के दिलों पर
और बच्चों की
हँसी में।
कोलकत्ता
१० मई , २०११
प्यार का गीत
देर कितनी लगती है
जीवन के चिराग पर गरूर करना
हवा का झोंका आने में देर कितनी लगती है ?
बाली उम्र की थोड़ी सी नादानी
पाँव फिसलने में देर कितनी लगती है ?
समुन्दर की चाहत पर
बूँद को नदी बनने में देर कितनी लगती है ?
कार्य के प्रति इच्छा और समर्पण
ध्रुव और प्रहलाद जैसी भक्ति
प्रभु को आने में देर कितनी लगाती है ?
कोलकत्ता
२ जुलाई, २०११
दूधों नहाओ - पूतों फलो
दूधों नहाओ और पूतों फलो
सोमवार, 6 अगस्त 2012
बेटियाँ
हँसती और
मर्यादा की सीमाओं और
समझदार हो कर
याद करा
के निशान लगा
बर्ड फ्लू
अब हम
थोड़े नहीं
बहुत साल
तक जियेंगे।
मुर्गा बोला
तुम भूल रही हो
तुम जानवरों के नही
इन्सान के पल्ले
पड़ी हो ।
अरे !
इन्सान तो
अपनों को भी
नही छोड़ते
तुमको
क्या छोडेंगे।
पहले तो
दस बीस को
मारते थे,
अब तो
हजारों को
एक साथ
खाद्य सुरक्षा बिल
चुहिया ने कहा -
खाद्य सुरक्षा बिल आ रहा है
अब अन्न गोदामों में
नहीं पड़ा रहेगा
सरकार अन्न गरीबों में बांटेगी
और हमें भूखो मरना पडेगा
चूहा बोला -
चिंता मत करो
ये राजनैतिक फैसला है
चुनाव के दिन करीब है
आम आदमी को वोटो के लिए
चारा डाला गया है
ताकि मुफ्त के अनाज का लोभ
आम आदमी के दिल में
दया का भाव पैदा कर सके
और सरकारों की सताएं
बची रह सके
हर बार चुनाव आने पर
आम आदमी को इसी तरह से
उल्लू बनाया जाता है
और वो उल्लू बनता हुवा भी
उफ़ तक नहीं करता है
इस देश में
जब तक वोटों की गन्दी
राजनीति चलती रहेगी
हमारी दीवाली ऐसे ही बनी रहेगी।
मत छीनो बचपन
पुस्तकों के बोझ तले
दबता मासूम बचपन में बुढ़ापे
का अहसास दिलाता है
वो थक कर चूर हो जाता है
खेलना तो दूर
बिस्तर पर गिर जाता है
अपने बच्चों का बचपन
कोलकत्ता
कौआ आकर बोलता है
पहले से बतायेगा
नया प्राणी आयेगा
नहीं कोई बहु का
२२ अगस्त, २०११
कबूतर को दाना
कौवे का श्राद्ध
श्राद्ध कर्म करने का
मन बनाया
श्राद्ध कर्म करने के लिए
बुलाया
पंडित कौवे ने एक पिंड
भिखारी उधर से निकला
और खा लिया
चिल्लाया - श्राद्ध पूर्ण हुवा
अश्रु टपक पड़े।
सुजानगढ़
रविवार, 5 अगस्त 2012
मत बदलो
आओ गीत गायें
कलकल करते झरनों में गीत है
सनसनाती हवाओं में गीत है
चिडियों के चहचहाने में गीत है
लेकिन हमारे गीत कहां है
चैत्र मास चैत्रा गीत कहाँ है
तीज और होली के गीत कहाँ है