रविवार, 5 अगस्त 2012

आओ गीत गायें






कलकल करते झरनों में गीत है
गड़-गड़  करते बादलो में गीत है 
           पंछियों की चहचहाट में गीत है
           लहलहाती फसलों  में    गीत है

घाटियों की सांय -सांय में गीत है
नदियों    के  निनाद में   गीत   है 
           समुद्र    के   जलघोष में गीत है
           सनसनाती  हवाओं  में  गीत  है
 
भंवरों   के  गुंजन  में   गीत   है
चिडियों के चहचहाने में गीत है                               
           पपीहा के   बोलने   में   गीत है
           कोयल के मीठे स्वर में गीत है

प्रकृति  में  सर्वत्र  गीत  है
लेकिन हमारे गीत कहां है 
           हम  क्यों नहीं गीत गा रहे  है 
           क्यों नहीं उन्हें गुनगुना रहें हैं
   
लोकगीत और भक्ति गीत कहाँ है 
बाल गीत और खेल गीत  कहाँ है 
           शौहर गीत और  गाथा  गीत कहाँ है 
           मेहंदी गीत और मेले के गीत कहाँ है

जन्म का जलवा गीत कहाँ है 
विवाह के विदाई गीत कहाँ है 
           सावन क बरखा गीत कहाँ है
           चैत्र  मास चैत्रा  गीत  कहाँ है 

तीज  और  होली के  गीत  कहाँ है 
गणगौर और झूलों के गीत कहाँ है 
           चरखा और  चक्की के  गीत कहाँ है 
           कजली और लावनी के गीत कहाँ है

प्रकृति अपने हर रंग में गा रही है 
हमें  भी गुनगुनाने  को कह रही है 
           आओ हम फिर से अपने गीत गायें
           जिन्दगी को गीतों के साथ गुनगुनायें। 

कोलकत्ता
२ जुलाई, २०११

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें