माँ ने रोज
की तरह सूर्यास्त से
पहले ही खाना खा लिया था
सुबह के लिए
स्नान घर में पानी की बाल्टी
अपने पहने के कपड़े रख लिए थे
कबूतरों को सवेरे
दाना डालने वाला कटोरा भी
भर कर कमरे मे रख लिया था
भर कर कमरे मे रख लिया था
गीता और माला भी
हमेशा की तरह
सिरहाने रखना नहीं भूली थी
सिरहाने रखना नहीं भूली थी
प्रातः बेला में
जब उठी तो कहने लगी
थोड़ा जी घबरा रहा है
हम कुछ समझ पाते
इतने में ही मृत्यु ने
बाज की तरह
झपटा मारा और
ले उड़ी माँ की साँसों को
बाज की तरह
झपटा मारा और
ले उड़ी माँ की साँसों को
एक क्षण पहले तक
माँ जीवित थी
अब वो शव बन चुकी थी
नहीं जगा पाया
माँ को मेरा विलाप
बहुओं और बेटों का आर्तनाद
वो हमारी
आवाजो की दुनियाँ से
बहुत दूर'जा चुकी थी
आज पहली बार मैंने
साँस की कीमत को
पहचाना था।
कोलकत्ता
२४ सितम्बर, २०११
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