तुलसीदास जी
अपनी पत्नी से
बहुत प्रेम करते थे
एक दिन पत्नी के
व्यंग बाणों से आहत हो कर
घर छोड़ जंगल में चले गये थे
निर्वासित होकर ही
उन्होंने रामचरित मानस
जैसा काब्य लिखा था
मै भी
अपनी पत्नी से
बहुत प्रेम करता हूँ
लेकिन पत्नी के
व्यंग बाणों से कभी
विचलित नहीं होता हूँ
वो चाहे जितना भी डाँटे
मै अपने कान पर जूँ तक
नहीं रेंगने देता हूँ
आराम से घर में
बैठ कर कविता रुपी काब्य
लिखता रहता हूँ।
लिखता रहता हूँ।
गीता भवन
२० जुलाई,२०१०
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