सोमवार, 6 अगस्त 2012

कबूतर को दाना




माँ अपने
कमरे में
रोज रात को
कटोरा भर कर
दाना रखती 

मुहें अंधेरे
उठ कर
छत पर
जाकर
कबूतरों को
दाना डाल आती  

कभी
आराम-बीमार
हो जाती
तो हमें कहती
जाओ कबूतरों
को दाना डाल
आओ 

वो कौन से
तुम से माँगने
आयेंगे
बेचारे
बिन झोली के
फ़कीर हैं 

माँ के
जाने के बाद
ये काम
माँ की बहू
कर रही है

रोज सवेरे
उठ कर
छत पर जाकर
दाना डाल रही है

कहती है
बेचारे बिन झोली के
फ़कीर है


यही तो
हमारी संस्कृति की
लकीर है। 


      कोलकत्ता
 ६ सितम्बर,२००९     

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