शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

गाँव का घर

गाँव का घर मेरे
सुख -दुःख का साक्षी रहा है
इससे जुड़ा है मेरा बचपन  

इस की छत पर बजी थी
खुशियों की थालीयाँ और
देखा गया था तीज का चाँद

आँगन में गाये गए थे गीत
और मनाये गए थे तीज
और त्योंहार

गुवाड़ी में बजी थी
शहनाइयाँ और
ढोल पर हुआ था
कुम्हार काकी का नाच 

उस घर को बेचना
अपने अतीत को मिटाना है
अपने बचपन को भुलाना है 

पराये शहर के
महल चाहे लाख लुभाए
अपने गाँव का घर तो
अपना ही होता है 

चाहे में वहां
जा कर नहीं भी रहूँ
लेकिन वो मेरी यादों में
सदा बसा रहेगा। 

कोलकात्ता
२६ मार्च, २०११

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