सोमवार, 13 अगस्त 2012

कुमकुम के छींटे

दैनिक विस्वमित्र, कलकत्ता - पुस्तक समीक्षा

दैनिक विस्वमित्र
पुस्तक समीक्षा 
२७ अप्रैल २०१२

                         


पुस्तक का नाम : कुमकुम के छींटे
लेखक : भागीरथ कांकाणी
प्रकाशक : इंडिया ग्लेजेज 
लिमिटेड , १०/३ काशीनाथ 
मल्लिक लेन, कोलकाता -
७०००७३ 
पृष्ठ संख्या : १४४
मूल्य : २०० रुपये
              
                       

कुमकुम के छींटे साहित्य प्रेमी व्यवसायी भागीरथ कांकाणी की हिंदी एवं राजस्थानी भाषा में समय- समय पर लिखी गयी कविताओं का संग्रह है| है तो प्रथम संग्रह किन्तु बोलचाल की सरल भाषा में प्रणित इन रचनाओं में प्रौढ़ सौन्दर्य चेतना और प्रकृति -प्रेम  का ऐसा जादुई आकर्षण है कि कोई  भी पाठक इसे इता आद्यान्त पढ़े वगैर छोड़ना नहीं चाहेगा |कुछ कविताएं बच्चों के लिए भी विशेष रूप से लिखी गई है, इसलिए यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि पुस्तक सम्पूर्ण परिवार के लिए पठनीय तथा संग्रहणीय है | विशेष रूप से "आएगा जरुर " शीर्षक कविता में आशावादिता का ऐसा सन्देश है, जो कि मन के हर अँधेरे कोने को प्रकाशमान करने कि क्षमता रखता है | गाँव कि यादें, अपनी संस्कृति,भिखारिन, भूख, वाह रे कलकत्ता, धन सब कुछ नहीं, बेटी का बाप, बेटियाँ तथा राजस्थानी भाषा में "पिया मिलन री रुत आई", विशेष रूप से मन के तारों को झंकृत करने कि भरपूर सामर्थ्य से युक्त है | गाँव और शहर,देश तथा विदेश कि यात्रओं के दौरान प्राप्त अपने अनुभवों के आधार पर लेखक को अपनी रचनाओं की सृष्टी में निश्चय ही भारी सहयोग प्राप्त हुआ है, जिसका परिचय उनकी हर रचना में स्पष्ट मिलता है | कविता को मानव जीवन के निकट लाने के लिए भवानी प्रसाद मिश्र ने भी सरल भाषा के प्रयोग पर बल दिया है और यह कविता-संग्रह भी सरल भाषा में ही रचित है , जिसमे अनुभवों और भावों की अदभुत गहराई भी हर पंक्ति में दिखाई देती है | ऐसी पुस्तक का सार्वजनिक पुस्तकालयों में होना आवश्यक है, इसमें संदेह नहीं | मनीष कांकाणी द्वारा प्रस्तुत पुस्तक का रंगीन कलेवर भी बहुत सुन्दर बन पडा है और मुद्रण शैली भी सराहनीय है |

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

प्राक्कथन



भूमिका

अनुशंसा



कुमकुम के छींटे

आदमी रो आदमी स्यूं
जद विसवास उठ्ग्यो 
जणा सोच्यो क्यूँ ने भाटे पर   
विसवास करयो जावै  |


कोनी विसवास हुवे 
निराकार में 
राखणो हुसी
आकार मुन्डागे |


थरप दियो  भाटें ने 
देवता बणाय ओ
मानली घडयोड़ी मूरत में
विसवास री खिमता |


चढ़ावण लागग्यो
मेवा र मिस्ठान
देवण  लागग्यों
कुमकुम का छींटा  |


भाटों बण देवता पुजीजग्यो
भोलो जीव पतीजग्यो |

आज बसंती हवा चली


पतझड़ को मधुमास बनाया
    बलखाती मलय बहार चली 
भंवरों के मधु गुंजन से
नन्हें फूलो की कली खिल । आज बसंती हवा चली।

खिली कमलिनी पोखर में
विहँस  पड़ी  कचनार कली
देखो मधुमय बसंत आ  गया
भंवरों  से फिर कली मिली। आज बसंती हवा चली ।

मधुगंजी बौराई जंगल में
अमुवा पर कोयलियाँ बोली
ओढ़ बसंती रंग चुनरियाँ 
धरती दुल्हन बनने चली। आज बसंती हवा चली।

बागों  में मधुमास छा गया
फूलों पर डोले तितली 
मतवाले बन गुन-गुन करते
मंडराए भंवरो की टोली । आज बसंती हवा चली।

कुंद मोगरे बेले खिल गये
झूम उठी डाली डाली 
बागों में अब झूले डाले
झूल रही है मतवाली । आज बसंती हवा चली ।

कोलकता
२७ फरवरी, २०१०
kol

बरखा आई


घनघोर घटा काली घिर आई
बहने     लगी   हवा   पुरवाई
बादल  में   बिजली चमकाई
मतवाली बरखा  ऋतु  आई
                                छम छमा छम बरखा आई। 

छम-छम कर बूँदें छहराई
सोंधी खुशबू  माटी से  आई
भीग चुनरियाँ तन लपटाई
महक  उठी  देह   महुआई 
                                छम छमा छम बरखा आई। 

अमृतघट प़ी धरती मुस्काई
कोयल ने मीठी तान सुनाई
झूला  झूल   रही   तरुनाई  
मीत मिलन की  बेला आई
                                  छम छमा छम बरखा आई। 

मेंढ़क ने मेघ मल्हार लगाई
इन्द्रधनुसी  छटा     लहराई
मिटी    उमस  पवन  ठंडाई
 मतवाली  बरखा ऋतु  आई
                                  छम छमा छम बरखा आई।

पिहु पिहु पपिहा  ने धुन गाई
कजली  खेतों में लगी सुनाई
 मस्तानी    वर्षा   ऋतु  आई
झूम बदरिया घिर घिर आई
                                   छम  छमा छम बरखा आई। 
सुजानगढ़
१५ जून,2010

स्पर्श



शिशु के बदन पर माँ
के हाथ का ममतामयी स्पर्श

प्रणय बेला में नववधू
के हाथ का रोमांच भरा स्पर्श

पेड़ों पर झूलती लताओं
का आलिंगनपूर्ण स्पर्श

पहाड़ों पर मंडराते बादलों
का प्यार भरा स्पर्श

हँसती खिलखिलाती नदी  का
 सागर में समर्पण का स्पर्श

गुलशन  में गुनगुनाते भंवरों  
का फूलों से मधुमय स्पर्श

मानसरोवर के स्वर्णिम कमलों  पर
 तुहिन कणों का स्पर्श

दुनियाँ के कोमलतम
     स्पर्श की कहानी कहते हैं  |

कोलकत्ता
१ अक्टुम्बर, २०१०

पहाड़ों की गोद में









मै  जब  भी
ऋषिकेश जाता हूँ
 हिमालय मुझे मौन निमंत्रण
देने लगता है  


मै चला जाता हूँ
हिमालय के विस्तृत
आँगन मे  जँहा हैं कई सौन्दर्य पीठ  


देवप्रयाग
रुद्रप्रयाग -सोनप्रयाग
चोपता, तुंगनाथ और जोसीमठ |


जहाँ चारों ओर
 होते हैं  ऊँचे-ऊँचे पहाड़
हरे- भरे खेत और सुन्दर वादियाँ 

चहकते  रंग- बिरंगे पक्षी
कल-कल करती गंगा - यमुना
जंगली फूल और हँसती हरियाली


 बिखरा  प्राकृतिक सौन्दर्य
बहते नाले और नाद करते झरने  
 शिखरों पर पड़ी अकलुषित हिमराशी

खिली-खिली चाँदनी रातें
गुदगुदी सी मीठी सुनहली धूप
प्राणों को स्निग्ध करदेने वाली स्वच्छ  हवा


पहाड़ों में बरसती
   उस शुभ्र कान्ति को देख   
मौन भी सचमुच मधु हो जाता है

मैंने गंगा
 यमुना के गीत सुने है
गोधूली बेला में उसके मटमैले धरातल
को सुनहला और नारंगी होते देखा है


सात बार बद्री
और तीन बार केदार के
 मंगलमय  दर्शन का सुख पा चुका हूँ 


दो बार
गंगोत्री और यमुनोत्री की
 चढ़ाई का आनन्द भी ले चुका हूँ  


कलकत्ते  की
 व्यस्तता  के बीच
 जब भी समय पाता हूँ
हिमालय की वादियों में चला जाता हूँ  

बनजारा मन
होते हुए भी आँगन का पँछी हूँ
 कुछ दिन हिमालय के आँचल में फुदक
कर  वापिस लौट आता हूँ। 
  

कोलकत्ता
१६ सितम्बर, २०११



मौसम बदलता है










हर बार
जा कर वापिस
 लौट आने वाला मौसम
अच्छा लगता है 

सर्दियों की 
गुनगुनी धूप
बसंत में कोयल की कूक
सावन की रिमझिम
मन को भाती है

याद आ जाती है
 पिछली बातें उस मौसम की
 जब वो लौटक आता है 

मौसम का
बदल कर लौट आना
  वैसा ही लगता है
जैसा तुम्हारा पीहर  जाकर
लौट आना। 

कोलकत्ता
५ सितम्बर, २०११

मेरी सुबह



   
आज  कल
 मै प्रकृति के संग
 रहता हूँ 

रोज सवेरे
 मुझे सूरज उठाने आता है
किरणों को भेज कर
मुझे जगाता है  

मैं निकल जाता हूँ
प्रातः  भ्रमण के लिए
अपनी सेहत को तरोताजा
रखने के लिए    

रास्ते में
ठंडी- ठंडी हवाएं  
 तन-बदन को शीतल
करती है 

पेड़ों की
 डालियाँ  झुक-झुक कर 
   अभिनन्दन करती है  

जूही, बेला,
 चमेली की खुशबू   
 वातावरण को सुगन्धित
 करती है  

पंछी मुझे देख
कर चहक उठते हैं
मौर मुझे देख कर नाच
उठते हैं 

भंवरे मेरे
 लिए गुंजन करते हैं  
हिरन मेरे लिए चौकड़ियाँ
      भरते हैं  

प्रकृति ने    
   कितना कुछ दिया है     
कितने प्यार से मेरा स्वागत
 किया है   

ये झरने, ये झीले
  ये नदी, ये पहाड़
          
सभी प्रकृति ने
 बनाये हैं मेरे लिए 
कितने रंगों से सजाया है
 मेरे लिए

बड़ी अच्छी
 लगती है सुबह की घड़ी
चहकते पंछी और महकते फूलों
 की लड़ी। 


कोलकत्ता  
१७ अगस्त, २०११






आएगा जरूर



एक दिन
ऐसा भी आएगा

सुदूर युग में ही सही 
लेकिन एक दिन 
आएगा जरूर 

जब कोई भी अमीर या
गरीब नहीं होगा
सभी समान रूप से
सम्पन्न  होंगे 

जब कोई भी असहाय  या
निर्बल नहीं होगा
सभी स्वस्थ और
नीरोग होंगे  

जब रंगभेद और 
जातपांत का भेद नहीं होगा
सभी भाईचारे के साथ
प्रेम से रहेंगे  

जब अणुबम और 
मिसाइले नहीं बनेंगी
दुनिया के लोग शान्ति और 
सौहार्द से रहेंगे 

जब अपराध और अत्याचार
का कहीं नाम नहीं होगा
सभी ईमानदारी और 
सच्चाई पर चलेंगे 

जब धर्म और मजहब के
नाम पर लोग नहीं बंटेंगे 
मानव सेवा को ही
सर्वोच्च समझेंगे

जब युद्ध और संघर्षों का
नाम नहीं होगा
इंसान की पलकों से
आँसू नहीं गिरेगें 

जब दुनियाँ सीमाओं में
नहीं बंटी होगी
सभी वसुधैव कुटुंब के  
सिद्धांत पर जियेंगे  

जब हर तरफ सुख ही
सुख बरसेगा
पूरा ब्रहमाण्ड धरती को
ही स्वर्ग समझेगा  

 एक दिन
ऐसा आएगा जरूर
सुदुर युग में ही सही
लेकिन आयेगा जरुर। 




कोलकाता
८ अगस्त, 2011







प्यार का गीत


 जीवन का
शास्वत सत्य है
संसार में आना और जीना
जीना  और चले जाना

\
किसी को
 पहले  किसी को   बाद में
 जाना तो सभी को
 पड़ता है

लेकिन प्यार
और मोहब्बत बांटने वाले
इस दुनिया में  सदा
 अमर  रहते हैं


युगों युगों तक
 लोग उनके नामों को
याद रखते  हैं
उनका सम्मान करते हैं


हमारे यहाँ
संतों ने  प्यार  बाँटा
सूर,  तुलसी, रहीम ने
 प्यार भरे गीत  गुनगुनाए


लैला-मजनू
   हीर- राँझा  और
सोहनी- महिवाल ने
 मोहब्बत का गीत गाया


और इसी
प्यार और मोहब्बत के
चलते वे  दुनिया में
अमर हो गए


 आओ   हम भी
अपने को अर्पित कर दें
   भविष्य की पीढी को


  आने वाली 
शान्तिमय संस्कृति  को
और  सदा के लिए
अमर हो जाएँ


लोगों के होठों पर
लोगों के दिलों पर
और बच्चों की
 हँसी  में।


कोलकत्ता
 १० मई , २०११

प्यार का गीत

देर कितनी लगती है






मयखाने में जाकर जाम गले लगायें 
पैर लड़खड़ाने में देर कितनी  लगती है ?

विश्वास के आँगन में शक के पाँव पड़ जाए 
चूड़ियाँ बिखरने में देर कितनी लगती है ?

जीवन के चिराग पर गरूर करना
हवा का झोंका आने में देर कितनी लगती है ?

बाली उम्र की  थोड़ी सी नादानी
पाँव फिसलने में देर कितनी लगती है ?

समुन्दर की चाहत पर
बूँद को नदी बनने में देर कितनी लगती है ?

कार्य के प्रति इच्छा और समर्पण
सफलता मिलने  में देर कितनी लगती है ?

ध्रुव और प्रहलाद जैसी भक्ति
प्रभु को आने में देर कितनी लगाती है ?



कोलकत्ता 
२ जुलाई, २०११

दूधों नहाओ - पूतों फलो



सरकार चाहे जितना
भी खर्च कर दे
इस देश की आबादी
पर नियंत्रण मुश्किल है |

हमारे देश की तो मिट्टी
को ही वरदान प्राप्त  है |

यहाँ  खेत से सीता निकलती है
पत्थर की शिला से अहिल्या निकलती है  |

कान  से कर्ण निकलता है
घड़े से अगस्त्य निकलता है
खम्बे से नरसिंह  का प्रकाट्य होता है |

ये महान देश है
इसकी महान परम्पराएँ   हैं  |

यहाँ  पाँव छूने पर
बहुओं  को भी
दूधों नहाओ और  पूतों  फलो
का आशीर्वाद दिया जाता है  |

 बच्चों को  यहाँ  रामजी की
  देन समझा जाता है  |
  
इस देश की आबादी पर
नियंत्रण कैसे संभव है  ?



कोलकत्ता
१० अगस्त, २०११

सोमवार, 6 अगस्त 2012

बेटियाँ

      


हवा के  शीतल झोंके की
तरह  माँ- बाप
 की  प्यारी
होती हैं बेटियाँ |
 
घर खुशी से  महक
उठता  जब
 हँसती और
मुस्कराती हैं बेटियां  |

मर्यादा की  सीमाओं और
 संस्कारों  में 
पली-बड़ी
होती हैं बेटियां I

बड़ी होने से पहले ही 
 समझदार हो कर 
 आगे निकल
जाती हैं  बेटियां |

गले  में बांहों क़ा झूला बना  
 माँ को बचपन   
याद करा  
देती हैं बेटियां   ।

कोयल की  तरह मधुर
  स्वरलहरी  सुना 
 एक दिन
   उङजाती  हैं बेटियां  ।

दीवार पर पीले हाथों
 के   निशान लगा
आँगन छोड़
 जाती हैं बेटियां  ।
 
ससुराल में  पत्नी, बहू 
दिवरानी, भाभी 
जैसे रिश्ते
निभाती हैं बेटियां  ।


कोलकत्ता
११ अगस्त,२०११  

बर्ड फ्लू



मुर्गी बोली
सुनो प्रिये
बर्ड फ्लू
आ गया है,
इंसान अब
हमें नही
खायेगा ।

अब हम
थोड़े नहीं
बहुत साल
तक जियेंगे।

मुर्गा बोला
तुम भूल रही हो
तुम जानवरों  के नही
इन्सान के पल्ले
पड़ी हो  ।

अरे  !
इन्सान तो
अपनों को भी
नही छोड़ते
तुमको
क्या छोडेंगे।

पहले तो
दस बीस को
मारते थे,
अब तो
हजारों को
एक साथ
मारेंगे।



कोलकत्ता
९ सितम्बर, २००९

खाद्य सुरक्षा बिल






चुहिया ने कहा -
खाद्य सुरक्षा बिल आ रहा है
अब अन्न गोदामों में
नहीं पड़ा रहेगा
सरकार अन्न गरीबों में बांटेगी
और हमें भूखो मरना पडेगा

चूहा बोला -
चिंता मत करो
ये राजनैतिक फैसला है
चुनाव के दिन करीब है
आम आदमी को वोटो के लिए
चारा डाला गया है

ताकि मुफ्त के अनाज का लोभ 
आम आदमी के दिल में
दया का  भाव पैदा कर सके
और  सरकारों की सताएं
बची रह सके

हर बार चुनाव आने पर
आम आदमी को इसी तरह से
उल्लू  बनाया जाता है
और वो उल्लू बनता हुवा भी
उफ़ तक नहीं करता है

इस देश में
जब तक वोटों की गन्दी
राजनीति चलती रहेगी
हमारी दीवाली ऐसे ही बनी रहेगी।




भेड़ चाल


भेड़ गर्मिंयों में  
लू के थपेड़े खा कर
जलती देह पर ऊन उगाती है 

सर्दियों में  खुद
 ठंडी हवाओ के थपेड़े
सहती रहती है

लेकिन अपनी
ऊन दूसरो को देह
 ढकने के लिए दे देती है  

इंसान आज तक
भेड़ चाल के नाम पर
 कटाक्ष ही करता आया है  

 उसने कभी भी
 भेड़ के इस त्याग को 
  समझने का प्रयास नहीं किया है 
    
गीता भवन
१२ जुलाई,२०१०

रेशमी कीड़ा



रेशमी कीड़ा 
सुरक्षित भविष्य
के लिए अपने  जिस्म
के चारो और एक जाल
बुनता है- कूकून 


मानव
उस  कीड़े को
गर्म पानी में डाल
कर उसका वध करता है
 और उसके कूकून को नोच
अपने लिए वस्त्र बनाता है


रेशमी वस्त्र
पहनने वालो ने
क्या कभी उस कीड़े की  
शहादत को भी याद किया हैं। 



कोलकत्ता
३० जनवरी ,२०११ 

मत छीनो बचपन



एक समय था जब
एक पाटी और एक बस्ता
हाथ में लेकर बच्चे स्कूल चले जाते थे  

पढ़ने के बाद हरे-भरे
मैदानों में खरगोशो की तरह
कुलाचें भरते हुए खेला करते थे  

गाँव के साफ सुथरे
रास्तो पर अधनंगे पाँव
धूल उड़ाते, उधम मचाते दौड़ा करते थे 

तालाब के किनारे
कपड़े उतार कर सहज भाव से
सामुहिक स्नान कर लिया करते थे 

आज इन नन्हे-मुन्ने
 बच्चों से उनका भोला भाला
बचपन छीना जा रहा है  

उंनीदी आँखों में ही
उनकी  पीठ पर दस किलो का
 बस्ता लाद दिया जाता है

पुस्तकों के बोझ तले
दबता मासूम बचपन में बुढ़ापे
का अहसास दिलाता है  

शाम ढले  बच्चा जब
वापस आता है  तब तक
   वो थक कर चूर हो जाता है

  खेलना तो दूर
वो आते ही निढाल हो कर
 बिस्तर पर गिर जाता है 

आज हम खुद
अपने बच्चों का बचपन
 घरों से निर्वासित कर रहे हैं

मत  छीनो  इनका बचपन
उड़ने दो  इनको आसमान में
यह बचपन लौट कर नहीं आयेगा।
   



कोलकत्ता
१४ जुलाई, २०११

कौआ आकर बोलता है





जब भी घर में नया सदस्य
जुड़ने वाला होता है
कौआ उससे पहले आकर
जरूर बोलता है 

चाहे घर में बहु के  बच्चा
होने की आश हो
चाहे घर में बेटे की सगाई
होने की बात हो 

कौआ खिड़की पर
आकर जरूर बोलेगा
एक दो दिन नहीं
कई दिन तक बोलेगा 

सबको आकर
पहले से बतायेगा
घर में कोई
नया  प्राणी आयेगा 

कौए का खिड़की पर 
बैठ कर बोलना
यानी की घर में एक
नए सदस्य का आना 

ये आज से नहीं कई
बरसों  से हो रहा है
कौआ आकर शुभ सूचना
पहले से ही दे रहा है

एक बार माँ ने कहा
इस बार तुम्हारा कौआ
झूठा होगा

नहीं कोई बहु का
पाँव भारी है
नहीं कोई घर में
होने वाली सगाई है 

लेकिन कुछ दिन बाद ही
माँ ने खुश खबर दी
बहु का पाँव भारी है
सबको बधाई दी 

कौआ जब भी बोला है
सच बोला है
कभी झूठ नहीं बोला है।  


कोलकत्ता
२२ अगस्त, २०११ 













कबूतर को दाना




माँ अपने
कमरे में
रोज रात को
कटोरा भर कर
दाना रखती 

मुहें अंधेरे
उठ कर
छत पर
जाकर
कबूतरों को
दाना डाल आती  

कभी
आराम-बीमार
हो जाती
तो हमें कहती
जाओ कबूतरों
को दाना डाल
आओ 

वो कौन से
तुम से माँगने
आयेंगे
बेचारे
बिन झोली के
फ़कीर हैं 

माँ के
जाने के बाद
ये काम
माँ की बहू
कर रही है

रोज सवेरे
उठ कर
छत पर जाकर
दाना डाल रही है

कहती है
बेचारे बिन झोली के
फ़कीर है


यही तो
हमारी संस्कृति की
लकीर है। 


      कोलकत्ता
 ६ सितम्बर,२००९     

कौवे का श्राद्ध




एक कौवे ने
अपने पूर्वजो के 
श्राद्ध कर्म करने का
मन बनाया 

 मंदिर वाले पेड़ के
 पंडित कौवे को
श्राद्ध कर्म करने के लिए
 बुलाया 

विधि -विधानुसार
पंडित कौवे  ने एक पिंड
बनवाया और पीपल के पेड़
के नीचे  रखवाया 

एक बूढा
 भिखारी उधर से निकला
 उसने पिंड को देखा
और खा लिया 

पेड़ से कोवा
चिल्लाया - श्राद्ध पूर्ण हुवा
मनुष्य ने पिंड को खा लिया 

सभी कौओं ने 
आसमान की तरफ देखा
श्रद्धा से उनकी आँखों से 
अश्रु टपक पड़े। 

सुजानगढ़                                                                                                                                                 
14 मई, 2010                                                                                                                                            

रविवार, 5 अगस्त 2012

मत बदलो






ग्वाल- बालों को अलगोजे पर
अपने लोक गीत गाने दो
उनके होठों पर
नए तराने मत सजाओ 


पनघट पर जाती गौरियों को
घूँघट से झांकने दो
उनको पश्चिमि
रंग में मत सजाओ 


मेहमान का स्वागत
छाछ और मट्ठे से करो
उनको कोकाकोला पिला कर 
  स्वास्थ्य नष्ट मत करो 


    बुड्ढे माँ- बाप की सेवा   
घर में रख कर ही करो
 वृद्धाश्रम भेज कर अपना
 भविष्य मत बिगाड़ो 


पेड़ पौधों और पर्यावरण
की रक्षा करो
जंगलो को काट कर 
  अपना जीवन मत बिगाड़ो। 


कोलकत्ता
३१ जुलाई, २०११

आओ गीत गायें






कलकल करते झरनों में गीत है
गड़-गड़  करते बादलो में गीत है 
           पंछियों की चहचहाट में गीत है
           लहलहाती फसलों  में    गीत है

घाटियों की सांय -सांय में गीत है
नदियों    के  निनाद में   गीत   है 
           समुद्र    के   जलघोष में गीत है
           सनसनाती  हवाओं  में  गीत  है
 
भंवरों   के  गुंजन  में   गीत   है
चिडियों के चहचहाने में गीत है                               
           पपीहा के   बोलने   में   गीत है
           कोयल के मीठे स्वर में गीत है

प्रकृति  में  सर्वत्र  गीत  है
लेकिन हमारे गीत कहां है 
           हम  क्यों नहीं गीत गा रहे  है 
           क्यों नहीं उन्हें गुनगुना रहें हैं
   
लोकगीत और भक्ति गीत कहाँ है 
बाल गीत और खेल गीत  कहाँ है 
           शौहर गीत और  गाथा  गीत कहाँ है 
           मेहंदी गीत और मेले के गीत कहाँ है

जन्म का जलवा गीत कहाँ है 
विवाह के विदाई गीत कहाँ है 
           सावन क बरखा गीत कहाँ है
           चैत्र  मास चैत्रा  गीत  कहाँ है 

तीज  और  होली के  गीत  कहाँ है 
गणगौर और झूलों के गीत कहाँ है 
           चरखा और  चक्की के  गीत कहाँ है 
           कजली और लावनी के गीत कहाँ है

प्रकृति अपने हर रंग में गा रही है 
हमें  भी गुनगुनाने  को कह रही है 
           आओ हम फिर से अपने गीत गायें
           जिन्दगी को गीतों के साथ गुनगुनायें। 

कोलकत्ता
२ जुलाई, २०११