मंगलवार, 31 जुलाई 2012

मजा ही कुछ और है



सूर्योदय तक
बिस्तर में पड़े रहने से तो
खुली हवा में टहलने का
मजा ही कुछ और है


टी.वी. पर क्रिकेट मैच
 देख कर तालियाँ बजाने से तो
नुक्कड़ पर क्रिकेट मेच खेलने का
मजा ही कुछ और है


आई पोड पर
चेटिंग कर समय बिताने से तो
कुछ सर्जनात्मक कार्य करने का
मजा ही कुछ और है |

बच्चे को
 डांट कर रुलाने से तो
रोते बच्चे को हँसाने का
मजा ही कुछ और है  

बुराई का बदला
बुराई कर देने से तो
भलाई कर देने का
मजा ही कुछ और है 

झूठी शान ओ शोकत में
धन बर्बाद करने से तो
किसी गरीब के आँसू पोंछने का
मजा ही कुछ और है। 

कोलकत्ता
२३ अप्रैल,२०११

भिखारिन


विक्टोरिया में
मोर्निंग वाक करके
हम शर्माजी की
दुकान पर पहुँचे 

सुबह के नाश्ते में
गर्म जलेबी और
समोसों के साथ
चाय का घूँट लेने लगे

तभी एक दुबली पतली
काया वाली औरत
कटी-फटी धोती में
कभी खुद को तो 
कभी अपने अधमरे
बच्चे को ढकने का
प्रयास करती हुई
हमारे सामने आकर
खड़ी हो गई 

वो टुकुर-टुकुर हमारी
तरफ देख रही थी
उसकी आँखों में एक
याचना थी 

किसी ने कहा
कितनी बेशर्म है
सामने छाती पर
आकर खड़ी हो गई 

सभी ने उसकी तरफ
तिरस्कार के भाव से देखा
 उसे  हटाने के लिए
बचा-खुचा उसकी तरफ
बढ़ा दिया 

वो हाथ में लेकर
एक कोने में चली गई
बच्चे को गोदी से उतारा
 छोटे-छोटे टुकड़े किये
और बच्चे के माथे पर
हाथ फेरते हुए
प्यार से खिलाने लगी 

हमने महसूस किया अब
उसकी आँखों में
याचना नहीं
एक तृप्ति का भाव था। 



कोलकता
६ जून,२०१०

पेट की भूख

एक बच्चा
जख्मों से भरा हुआ
मैले कपड़े, नंगे पाँव
बासी, जूठे और गंदे खाने को
दोनों हाथों से बिचेरते हुए खा रहा है 

जिसे अभी -अभी
पार्टी ख़त्म होने पर
मेजपोशों से उठा कर
सड़क पर लाकर फेंका है

पास ही एक कुत्ते का पिल्ला
अपने सामने के दोनों पांवों से
उसी खाने को पूरे जोर
से बिचेरते हुए खा रहा है 

दोनों अपनी अपनी
भूख मिटाने में लगे हुए हैं
बीच - बीच में दोनों एक दूसरे  
की तरफ देख लेते हैं  

उदास शाम
डरावनी रात और
पेट की भूख ने
दोनों को एक सूत्र में बाँध दिया है।

लाल बत्ती

महानगरों के चौराहों पर
गाड़ी रुकते ही
अक्सर आ जाते हैं
भीख माँगते बच्चे

चार- पाँच साल के
अर्धनग्न,मैले कपड़े
नंगे पाँव दौड़ते
हाथ फैलाए बच्चे

कातर भाव से
हाथों को मुँह के पास 
ले जा कर खाली पेट
दिखाते बच्चे

ललचाई आँखों से
दो रुपये दे दो बाबूजी
की रट लगाकर
भीख  माँगते बच्चे

पैसे मिलते ही
खुश हो कर एक से
दूसरी गाड़ी की तरफ
लपकते हुए बच्चे

हरी बत्ती जलते ही
किनारे की तरफ दौड़ 
अगली लाल बत्ती होने
का इन्तजार करते बच्चे

यह है हमारी
चौसठ वर्ष की
प्रगति को दिखाते
भविष्य के प्रतीक बच्चे ।
     















रैलियाँ

 


कोलकाता और रैलियाँ  
दोनों का चोली-दामन
का साथ है 

कोलकाता है तो रैलियाँ हैं,
रैलियाँ  हैं तो समझो ये
कोलकाता है 

यहां कोई भी कभी भी
रैली निकाल
सकता  है 

 रैलियों का बड़ा आयोजन
राजनैतिक पार्टियाँ 
 करती हैं 

ये रैलियाँ कोलकाता का
 चक्का जाम करने में
 सक्षम होती हैं

हाथों में पार्टियों के झंडे
बगल में लटकते थैले
   पहचान है इन रैलियों की

महानगर की  सडकों  पर
अजगर की तरह
सरकती है रैलियाँ

इनके पीछे चलती रहती हैं
सायरन बजाती एम्बुलेंस  
जिसमे रोगी सोया रहता है

घंटी बजाती दमकल
 जिसे कहीं लगी हुयी आग को
 बुझाने पहुँचना होता है 

प्रसूता जिसे अविलम्ब
सहायता के लिए
अस्पताल पहुंचना होता है

लेकिन रैलियों की भीड़
इन सबकी चिंता
नहीं करती

वो गला फाड़-फाड़
कर नारे लगाती
 रहती है

जिनका अर्थ वो
 स्वयं भी नहीं
जानती है

   .इन्कलाब जिंदाबाद
        जिंदाबाद  जिंदाबाद   !



कोलकत्ता
८ सितम्बर,  २०१०

वहा रे कलकत्ता



यह    कैसा  है  कलकत्ता                       
         मेरी समझ में नहीं आता 
माँ   काली का   कलकत्ता                      
        बड़ा   विचित्र है   कलकत्ता 


हाथीबगान में हाथी नहीं              
              बागबजार में  बाग  नहीं    
  बहुबजार   में  बहु   नहीं               
             फूलबगान में फूल   नहीं  


        राजाकटरा में राजा  नहीं                  
               पार्क सर्कस में सर्कस नहीं  
     प्रिंसेस घाट पर प्रिंसेस नहीं          
                    बाबुघाट  पर  बाबू  नहीं  


       निम्बूतला में निम्बू  नहीं                   
               बादामतला में बादाम नही
मछुवा बजार में मछुवा नहीं              
                  दरजीपाड़ा  में  दरजी नहीं  


 बैठक खाना में बैठक नहीं             
               बैलगछिया  में  बैल नहीं
घासबगान  में घास  नहीं              
                    बाँसतल्ला  में बाँस नहीं   


        यह   कैसा     है  कलकत्ता                    
               मेरी   समझ में नहीं आता
 माँ  काली   का  कलकत्ता             
                बड़ा  अजब  हैं  कलकत्ता। 

कोलकत्ता
११ सितम्बर, २०१० वहा रे कलकत्ता

आओ मिल कर खेलें होली

           


हुरियारों   की   आई  टोली
             बजा चंग सब गाये होली              
 भर जाये खुशियो से झोली                                                                                                                                     आओ मिल कर खेलें होली               

भर पिचकारी  रंग डालते
            एक   दूजे  पर  हमजोली
घुटे  भाँग और पिए ठण्डाई
          आओ  मिल कर खेलें  होली 

देवर- भाभी, जीजा-साली     
          आपस में सब करे ठिठोली
बजे चूड़ियाँ, फिसले साड़ी
           आओ मिल  कर खेलें होली  

हर आँगन में पायल झनके
              हर चोखट  चन्दन रोली 
तन में मस्ती मन में मस्ती  
           आओ मिल कर खेलें होली 

हर  भोलो  कान्हो  लागे       
                 हर   बाला  राधा गौरी   
रंग-भंग  की बौछारों में         
          आओ मिल कर खेलें होली।     




दोस्ती



          माँ की ममता सी होती है दोस्ती                   
              भाई के  सहारे सी होती  है दोस्ती   
   बहन के  प्यार सी  होता है दोस्ती         
                लाजबाब  रिश्ता होती  है दोस्ती  

सागर से गहरी होती है दोस्ती           
            जल से शीतल होती है  दोस्ती
         फूलों से कोमल होती है दोस्ती              
               हवाओं  का संगीत होती है दोस्ती   

         कड़ी धूप में तरुवर होती  है दोस्ती             
             मरुभूमि में निर्झर होती  है दोस्ती
     चाँद की  चाँदनी होती  है दोस्ती             
               उजाले की किरण  होती है दोस्ती

         अरमानों का आईना होती है दोस्ती           
           जीने का अंदाज होती है दोस्ती
        उदासी की मुस्कान होती है दोस्ती           
                   जीवन का सहारा होती है  दोस्ती।      



कोलकत्ता
५ अगस्त, २०१०

सत्ता का हस्तांतरण



बहू ने
सास की थाली में
घी से चुपड़ी रोटी 
को रखा  

प्यार से कहा -
खाइए !
थक गई तो
लोग कहेंगे
बहू ने सास को
ठीक से नही रखा

सास के
मुँह में जानेवाला ग्रास
हाथ में ही थम गया

आज अचानक
सास को वास्तविकता
का ज्ञान हो गया

कल तक
सास जो बहू को
अपने पास रखने का
दम भर रही थी 

आज बहू
उसे अपने पास रखने
का एहसास दिला रही थी 

शब्दों के
बोल में ही सब कुछ
बदल गया था 

अनजाने में ही
शान्ति से सत्ता का
हस्तांतरण हो गया था। 



कोलकत्ता
१७ फ़रवरी २००९

अन्ना का आन्दोलन.



सुना आपने
देश भर में अन्ना का
आन्दोलन

रामलील मैदान में
अनशन
देश की जनता का
सहयोग

युवा वर्ग का विशेष
समर्थन
चारो तरफ रैलियां
और अनशन

भस्म  हो  जाएगा इस
अनशन और आन्दोलन की 
आग में भ्रष्टाचार

पीले पड़ने लगेंगे
खून पिए हुए  
सुर्ख चहरे

जन लोकपाल बिल
पास होते ही
ध्यान में लाये जायेंगे
नेताओं के पिछले कारनामें

शर्म से तब
गड़ जायेंगे भ्रस्टाचारी
देश को मिलेगी
उस दिन
असली आजादी। 


कोलकात्ता
२  सितम्बर, २०११

मानवी बनो

गंधारी
अपनी आँखों  पर
बन्धी पट्टी को खोलो

तुम असहाय नहीं हो
तुम निरुपाय नहीं हो
तुम अबला नहीं हो

आज का घृतराष्ट्र जन्मांध नहीं है
वो केवल अन्धे होने का
नाटक मात्र कर रहा है

ताकि तुम्हें अपनी
सम्पति समझ छलता रहे
तुम्हे  भोगता रहे

इक्कीसवीं सदी
तुम्हे निमंत्रण दे रही है
मानवी बनने का आमंत्रण दे रही है

उठो अपने आप को पहचानो
मौन की  चट्टान को तोड़ो
तूफानी धारा को  मोड़ो

भ्रस्टाचार का मर्दन करो
स्वार्थ का दहन करो
विजय का नर्तन करो

जब तुम्ह हिम्मत करोगी
तुम्हारी जीत का शंख बजेगा
मिटटी का हर कण तुम्हारी जय बोलेगा ।











दिल में जय की आश रखें




रख भरोसा प्रभु चरणों में           
              हमको  आगे बढ़ना है  
जीवन के  हर एक पल को        
              हमें  ख़ुशी से जीना  है  


राहें सीधी हो या टेढ़ी                 
               हँसना ओ मुस्काना है     
संकट आते-जाते हैं            
             इनसे क्या घबराना है  


हिम्मत के बल आगे बढ़             
       जीवन में खुशियाँ लानी हैं 
आशाओं  के दीप जला कर        
                 रोशन राहें  करनी हैं   


चाहे जितनी  हो बाधायें              
               हमको चलते जाना है 
दुःख से ही सुख आता है           
          जीवन का यही तराना है 


जीते हैं मरने वाले ही              
             दिल में यह विश्वास  रखें  
हार गए तो भी क्या होगा          
             दिल में जय की आश रखें। 

सुजानगढ़
७ जून  २०१० 

सभ्य और असभ्य

तुम असभ्य हो क्योंकि
तुम गाँवों में रहते हो
तुम नंगे पाँव चलते हो
मिट्टी में काम करते हो
कम पढ़े -लिखे हो  

मै सभ्य हूँ क्योंकि
मै  शहर में रहता हूँ 
मैं गाड़ी में चलता हूँ
वातानुकूल कमरों में रहता हूँ
ज्यादा पढ़ा-लिखा  हूँ 

अपने को सभ्य कहने वाले
काश ! समझ पाते की वो
किस के बल पर अपने
को सभ्य कह रहे हैं 

ये ऊँची-ऊँची अट्टालिकाऐं   
ये कल-कारखाने
ये खेत और खलिहान
सब जगह इनकी ही
शक्ति काम कर रही है

अपनी सभ्यता का दम तुम
इनके सहारे ही भर रहे हो
जिनको तुम असभ्य
कह रहे हो। 

कोलकाता   
२४ जुलाई २०११

टूटता सपना

पढाई करके
जब कलकता कमाने  निकला
तब यह सोच कर निकला कि 
एक लाख कमाने के  बाद
वापिस गाँव लौट आऊँगा  

गाँव आकर
प्रकृति के संग  रहूँगा
खेती करूँगा
गाय भैसों को पालूँगा 
खालिश दूध के साथ
रोटी खाऊँगा
अपनी आठो याम
मस्ती के सँग जीऊँगा 

गाँव  के बच्चों को
अपने ढंग से पढाऊँगा 
अस्पताल खुलवाऊँगा
सड़केँ बनवाऊँगा

बिजली लगवाऊँगा
शौचालय बनवाउँगा 
अपने गाँव को एक
आदर्श गाँव बनवाऊँगा  

आज एक लाख
की जगह सैकड़ों लाख
कमा लिए लेकिन संतोष
अभी भी नहीं  है

अब मै टाटा,बिड़ला और
अम्बानी की जीवनियाँ 
पढ़ने लगा हूँ 

एक कहावत है
सपने देखने
वालो के ही
सपने पूरे होते हैं

और मै अब 
इसी सच्चाई को
सच्च करने में लगा हुआ हूँ

मैंने अपनी चाहतों के
जो मोती कभी पिरोये थे
उन्हें आज भी पिरोना चाहता हूँ
लेकिन बुद्धि तर्क दे कर
मन को समझा देती है 

क्या करोगे वहाँ जाकर ?
जो काम तुम करना चाहते थे
वो सारे काम गांवों में
सरकार कर ही रही है

और जब सरकार कर ही रही है
तो तुम्हारे करने के लिए
अब गाँव में रखा ही क्या है ?

ऐसा सिर्फ
मेरे साथ ही नहीं
बहुतों  के साथ हुआ  है ।



कोलकत्ता
३१ जुलाई, २०११

मामूली कविता

मैंने आज एक
मामूली कविता लिखने
की सोची है

मामूली कविता
लिखने का एक अलग ही
अन्दाज होता है

मामूली कविता
किसी पर भी लिखी जा सकती है
यह डायरी का लिखना होता है

अपने एक सहपाठी पर भी
जिसके घर से आये नाश्ते के लड्डू
हम खा लिया करते थे @

अपने छपे पुराने लेख
और कविताओ के संग्रह पर भी 
जो माँ ने दे दिए थे #

फिल्म गंगा जमना पर भी
जिसको भूगोल का पाठ समझ कर
देखने चले गए थे $

मामूली कविता
लिखने वाला भी निश्चिंत
होकर लिखता है


क्योंकि मामूली कविता को
कभी कोई भूल से भी
नहीं  चुराता है

और अंत में चार लाइने
जहाँ से  इस कविता को
लिखने की प्रेरणा मिली

लारलप्पा, बटाटा बड़ा,
इलू-इलू, इना-मिना-डिका
जैसे गानों को सुन कर।


     ===========================
@ :--मालचंद करवा नवलगढ़ कोलेज हॉस्टल में मेरा रूम पार्टनर  था।  वह रात को रजाई ओढ़ कर घर से लाये लड्डू खाया करता था। सुबह जब वह स्नान करने जाता, हम उसकी अलमारी खोल कर उसके लड्डू खा लिया करते थे।   वह जब देखता कि उसके लड्डू गिनती में कम हो रहे है, तो वह हमसे पूछता।  हम कह देते रात में  रजाई में तुमने कितने लड्डू खाए कोई गिनती है क्या ? और वह निरुतर हो जाता।

#:-- कोलेज में पढ़ते समय मैं कुछ लेख और कहानिया लिखा करता था,जो समय - समय पर पत्र पत्रिकाओं में छपती रहती थी। \मै उनको घर ले जा कर रख दिया करता था। एक दिन गाँव से आयदानाराम की माँ आई और कहने लगी सेठानी जी थोड़े कागज़  दे दो तो  दो- चार ठाटे बनालू। माँ ने मेरी सारी पत्र - पत्रिकाए उठा कर उसको दे दी।

$ :--मै उस समय कक्षा नौ में पढ़ता था। भूगोल में एक पाठ  था - गंगा जमुना का मैदानी भाग। मै अपने गाँव से सुजानगढ़ एक विवाह में शामिल होने आया था।  तांगे पर एक आदमी माइक ले कर फिल्म गंगा जमुना  के बारे में प्रचार कर रहा था।  मैने सोचा, जरुर इस फिल्म में गंगा जमुना के मैदानी इलाको के बारे में दिखाया गया होगा। मै पिताजी से पूछ  कर फिल्म देखने चला गया। उसके बाद क्या देखा, वो तो आप भी जानते  हैं।



कोलकत्ता
१९ सितम्बर,२०११

जिन्दगी

दुनियाँ में
सब कुछ तय है
कौन कब पैदा होगा
कौन कब मरेगा
कब आएगी गर्मी
कब आएगी बरसात
कब होगी रात और
कब आयेगा प्रभात
यानी सब कुछ
पहले से ही तय है
और जब सब कुछ 
पहले से ही तय है
तब  चिंता किस बात की
जिओ जिन्दगी को जिंदादिली से।

ताजमहल


मैंने भावुकता से कहा --

काश ! मै  भी तुम्हारे लिए
एक ताजमहल बनवाता

पत्नि  ने गंभीरता से कहा-

कागज़ की संगमरमरी देह पर 
मेरे लिए लिखी तुम्हारी कवितायेँ 
सौ ताजमहलों से भी बढ़ कर है। 

सोमवार, 30 जुलाई 2012

धन सब कुछ नहीं


धन से बंगला तो  खरीदा
जा सकता है लेकिन
सुख और शांति नहीं

धन से बढ़िया पलंग और
गद्दा तो खरीदा जा सकता है
लेकिन नींद नहीं

धन से अच्छे अस्पतालों में
कमरा तो लिया जा सकता है
लेकिन स्वास्थ्य नहीं

धन से बाहुबली का पद तो
पाया जा सकता है
लेकिन सम्मान नहीं

धन से अच्छे पकवान तो
ख़रीदे जा सकते है
लेकिन भूख नहीं

धन-दौलत-पैसा
बहुत कुछ हो सकता है
लेकिन सब कुछ नहीं

हर इन्सान के पाँव के नीचे
जमीन और सिर के ऊपर
आसमान होता है

एक दिन सभी  को
दो गज कफ़न  के साथ
खाली  हाथ जाना पड़ता है।



जुदाई


दूर तक साथ चलना था
राहे-सफ़र में हमें
पलभर भी दूर  रहना 
गँवारा नहीं था हमें 

लगता था एक-दूजे के लिए
ही बने थे हम
आज वो सारे कसमें -वादे
भूल गये हम

सौ जन्मों तक साथ निभाने
का वादा किया था हमने
अपने घर को स्वर्ग बनाने का
सोचा था हमने

कल्पना के गुलसन में अनेक
फूल खिलाये थे हमने
आज मधुमास को पतझड़ में
बदल दिया हमने 

अपनी ही बातों पर
रोज अड़ते रहे हम
एक दूसरे की बातों को
रोज काटते रहे हम

अपने-अपने स्वाभिमान
को टकराते रहे हम
एक दूसरे के दिल में
न तुम रह सके न हम  

छोटी-छोटी  बातो  ने
जुदा कर दिया हमको
हालात इतने  बदल जायेंगे
मालूम नहीं था हमको

कभी अपने ही रास्ते पर
फूल  बिछाये थे हमने
आज उसी रास्ते पर
 काँटे बिछा लिए हमने 

खंजर से नहीं बातों से ही
दिल टूटे थे हमारे
सारे हसीन ख्वाब
चूर हो गये थे हमारे

नहीं संभव अब हम फिर
इस जीवन में  साथ रहेंगे
एक आसमा के नीचे रह कर भी
हम अंजान बन रहेंगे।

कोलकाता
२४  अगस्त, २०१०   

बेटी का बाप

एक  बेटी का बाप
अनेक मजबूरियों के साथ
जीवन जीता है 

बहुत कुछ करने की
सामर्थ्य रखते हुए भी
कुछ नहीं कर पाने की
मजबूरी के साथ जीता है  

जनक ने अपनी
अमूल्य धरोहर को दाँव पर लगाया 
कि उसकी बेटी को योग्य वर मिले
और वो सुखी जीवन जी सके  

लेकिन सीता को
वन- वन भटकना पड़ा 
सामर्थ्यवान होते हुए भी जनक 
कुछ नहीं कर सके 

आज भी बेटी का बाप
बेटी के सुखी जीवन के लिए
अपना सब कुछ दाँव पर लगाता है  

लेकिन उसकी बेटी को
आज भी सब कुछ सहना
और झेलना पड़ता है  

 पुरखों  के जमाने से
चले आ रहे जंग लगे दस्तूरों को
आज भी उसे निभाना पड़ता है  

बेटी का बाप
बहुत कुछ कर सकने की
सामर्थ्य रखते हुए भी
कुछ नहीं कर पाने की
मज़बूरी के साथ जीता है। 






कोलकता
१० अक्टूम्बर २०११


          

बुढापे का स्वागत करो





उम्र अब  ढलने  लगी
दस्तक बुढ़ापा देने लगा 
बीते समय को भूल कर
                             वक्त से समझौता करो
                            बुढापे का स्वागत करो

हुक्म  चलाना  छोड कर
हुक्म मानना सीखो अब
बच्चे जो कुछ करना चाहे
                                उनकी  हाँ में  हाँ करो
                             बुढापे का स्वागत  करो


रुख  समय  का  देख  कर
अपने आप  को बदलो तुम
शांत  भाव  से रहना  सीखो
                                 गुस्सा करना बंद करो
                                बुढापे का स्वागत  करो


सब कुछ अब सहते चलो
सब्जी सड़े या बिजली जलो
होने दो जो कुछ  होता है
                                टोका  - टोकी   बंद करो
                                बुढापे का स्वागत  करो


कौन सुनेगा कहा तुम्हारा
किसके पास \समय है अब
ध्यान लगा कर घर में बैठो
                                चुप रहना स्वीकार करो
                                  बुढापे का स्वागत करो।





कोलकत्ता
२८  अगस्त, २०१० 




जीवन की साँझ



बहारों के साथ मैंने भी गुनगुनाया था        
           अब वो गुलसन वीरान हो गया है
हसीन पलों को मैंने भी जिया था             
                अब वो चमन भी कहीं खो गया है    

चाँदनी रातो में मैंने भी गीत लिखे थे        
                     अब वो गीत कहीं खो गए हैं
फूलो से राहों को मैंने भी सजाया था       
                   अब  वो राहें भी वीरान हो गई हैं 

मेरी जिन्दगी में भी बसन्त आये थे           
                             अब वहां पतझड़ आ गया है      
कल्पना के पंखो से चाँद को  छुआ  था          
                       अब कल्पनाओं के पँछी उड़ गए हैं    
  |
तूफ़ान की पीठ चढ़ दुनियाँ घूमा था       
                  अब वो तूफ़ान भी शांत हो गया है   
किरणों को पकड़ आकाश को छुआ था    
                  अब वो  भुजाएं भी निर्बल हो गयी हैं  

        उगते सूरज के साथ मैं भी हँसा  था            
                 अब ढलते सूरज को देख रहा हूँ  
जीवन का बसंत तो बीत गया       
                 अब यादों के सहारे ही जी रहा हूँ। 




कोलकात्ता
३१ अगस्त  २००९

अपनों का प्यार

इंसान को बहुत कुछ
नहीं चाहिए जीने के लिये
अगर मिल जाये अपनों का
थोड़ा सा प्यार

लेकिन प्यार की जगह मिले
घावों से डबडबा जाती है आँखें
और धूमिल हो जाती है
मन की आकाक्षाएँ

वक्त के साथ भले ही
धूमिल पड़ जाए यादें
फिर भी मन को कचोटती
रहती है बातें

अपनो से सुनी बातों का
दुःख तो जरुर होता है
लेकिन जो होता है 
वो अच्छे के लिए ही होता है

कुछ  चोटों के निशान
रहे तो उन्हें देख-देख
संभल कर चलना तो
आ ही जाता है। 

आनन्द




आनन्द है,आनन्द है
आनन्द में रहेंगे 

दुःख में रहें,सुख में रहें  
प्रभु का गुणगान करेंगे  
आनद है,आनन्द है 
आनन्द में रहेंगे 

घर में रहें,बाहर रहें   
हम सबसे प्रेम करेंगे  
आनन्द है,आनन्द है  
आनन्द में रहेंगे 

माता-पिता, भाई-बहन
  सब का सम्मान करेंगे  
आनद है,आनन्द है
आनन्द में रहेंगे  

झूठ नहीं,सच बोलेंगे
हम सब का भला करेंगे 
आनन्द है,आनन्द है
आनन्द में रहेंगे 

कर्म करें,सेवा करें
फल की चिंता न करेंगे  
आनन्द है,आनन्द है
आनन्द में रहेंगे। 



गीता भवन
१६ अप्रेल , २०१०

अन्तर्यामी प्रभु


आगंतुकों का
रजिस्टर देखते हुए
 उदघोषक ने मेरा नाम पुकारा


  बैकुंठाधिपति के सामने
खड़े होते ही चित्रगुप्त
 मुझसे पूछने लगे


 मैंने कहा-प्रभु !
मुझसे क्यों  पूछते हो
कर्ता- धर्ता तो सबके आप हो  


    मैं तो निमित मात्र था 
कर्णधार और सूत्रधार
तो आप ही हो 
  
आपने ही तो
 मुझे इस महानाट्य का
 पात्र बनाया था 

लीला तो प्रभु
चारों तरफ आप ही की
 चल रही थी

मै तो
आपके हाथ का
एक उपकरण मात्र था

आपने जो करवाया
वह मैंने किया
    जो बुलवाया वो बोला  
              
मुझे तो इस नाटक के
आदि  और अन्त का भी
पता नहीं था 

 आप  ने ही तो
   गीता में कहा था  
निमित्तमात्र भव 

  मैंने भी वही किया
 केवल निमित्त मात्र बना
 आपका निर्देशित आचरण प्रभु !

अब मुझे
        इस कठघरे में खड़ा करके    
         क्यों पूछ रहे हैं प्रभु ?        
    
  यत्कृतं  यत् करिष्यामि तत्  सर्वं न मया  कृतम्
त्वया कृतं तु  फलभुक्  त्वमेव  रघुनंदन।

कोलकत्ता
१६ सितम्बर, २०११

तुलसी का राम



                                                                        भगवान् राम
मेरे स्वप्न में आये 
और बोले

 सुना है तुम    
 एक नयी रामायण का
अंकन करने जा रहे हो

    मैंने कहा - हाँ  प्रभु !   
तुलसीदास जी ने आपके
 साथ न्याय नहीं किया 

राघवेन्द्र  बोले - 
 नहीं- नहीं तुम ऐसा   
मत करना

मेरा चरित्र
मनुष्य का चरित्र होने 
 के कारण ही महिमा मंडित है

   जीवन मूल्यों
 के प्रति राम की मानवता
दिखाना ही इस कथा का सार है

मनुष्य अपने
  गुणों से देवता बन सकता है 
तुलसी ने यही बताया है

अतः तुम
नयी रामायण का
अंकन मत करना

मुझे तुलसी
का राम ही रहने
  देना। 

कोलकता
१७ मई, २०११


भक्तगण



गर्मियों की शाम
स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश)
गंगा का तट
पानी में नहाते
भक्तगण 

ठंडी-ठंडी हँवाए
शांत गंगा जल
घाटों पर ध्यान लगाते
भक्तगण 

गीता भवन का घाट
श्री गौरी शंकर जी के
सानिध्य में
शिव महिमा स्त्रोत्र का
 पाठ करते
भक्तगण 

परमार्थ निकेतन का घाट
मुनि श्री चिन्मया नन्द जी के
सानिध्य में
गंगा आरती करते
भक्तगण 

वानप्रस्थ आश्रम
श्री मुरारी बापू के
सानिध्य में
भागवत कथा का
रसपान करते
भक्तगण 

वेद निकेतन धाम
श्री विश्व गुरूजी के
सानिध्य में
हठयोग का 
प्रशिक्षण लेते   
भक्तगण

दिन भर कमाए
पुण्य के सानिध्य में
गंगा को दीपक अर्पित करते
कितने अच्छे लगते हैं
भक्तगण। 



गीता भवन
१६ जुलाई, 2010

भूलें नहीं



प्रभु    हम तुम्हे भूलें  नहीं  
कहने से काम  चलेगा नहीं   
                         पूरी तरह सर्मर्पित हो कर 
                          हर कर्म करे  प्रभु निमित्त 

विलीन कर दें जीवन प्रभु में   
निमित्त हो  जाये प्रभु हाथ में  
                                        चाहे   पत्तो की तरह  उड़ाएं
                                            चाहे फूलो  की तरह खिलाएं   

प्रभु  जो करें वही सिरधरे
    सब कुछ अब  प्रभु  नाम करें।       


कोलकत्ता
१० अगस्त, २०११

प्रभु महान है

प्रभु !
आप महान है
इसलिए नहीं कि
आपने सूरज और चाँद बनायें हैं
या धरती और आकाश बनायें  है
आप महान इसलिए है कि
छोटे और बड़े सभी आपको
अपना मानते हैं। 

शरद पूर्णिमा

शरद पूर्णिमा की
चाँदनी रात

गीता भवन का
गंगा किनारा

कल-कल करता
गंगा का जल 

लहरें किनारे से टकरा
टकरा कर लौट रही हैं

मै किनारे पर बँधी  
नौका में  लैट  जाता हूँ

आसमान में चमकते सितारे 
आँखों में जगमगाने लगते  हैं   

जल के संगीत पर
भावना की तरह तैरने लगता हूँ 

गंगा होठों पर बसती जाती है 
और मैं गुनगुनाने लगता हूँ

नैसर्गिक सौन्दर्य को मन की
आँखों से पीने लगता हूँ। 





गीता भवन
२० जुलाई, २०१०

अभिलाषा



आईने में अपना
चेहरा तो सभी देखते हैं
लेकिन मै जब आईना देखूँ और
चेहरा तुम्हारा साथ दिखे तो जानूँ 

मयखाने में जाकर तो 
सभी मदहोश होते हैं
तुम मेरी शरबती आँखों में झाँको और 
 मदहोश होकर दिखाओ तो जानूँ 

  खिलती कली पर तो
 सभी नग्मे गुनगुनाते हैं
तुम मेरे नाजुक लबों  पर कोई गीत
लिख कर गुनगुनाओ तो जानूँ 

गुलशन में खुशबू
तो सभी फूल बिखेरते हैं
तुम मेरी जिन्दगी में प्यार की  
खुशबू  बिखेर कर दिखाओ तो जानूँ  

दिन के उजाले में
तो सभी साथ चलते हैं
तुम अंधकार में दीप जलाकर 
मेरे साथ चल कर दिखाओ तो जानूँ 

यौवन तो चढ़ता सूरज है
ढलती उम्र में जब तम छाये और
तुम पूनम का चाँद बन कर
आओ तो जानूँ। 




कोलकत्ता
३० अगस्त, २०१०