शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

गर्मी की रातें



गाँव में
गर्मियों के दिनों में
छत पर पानी डाल कर
ठंडा कर दिया करते थे 

शाम का
धुंधलका होते ही
छत पर चले जाया करते थे 

बिस्तर पर
लेटे-लेटे खुले आसमान में
 चाँद में चरखा कातती बुढ़िया को
देखा करते थे 

सप्तऋषियों को बाँधने
तारों को फँसाने का प्रयास
किया करते थे 

रात में तारो की बरात
और टूटते तारों का नजारा
देखना अच्छा लगता

ये सब करते-करते
कब नींद आ जाती
पता भी नही चलता 

अब रात को
आसमान की जगह
केवल कमरे की छत
दिखाई देती है

लेटे-लेटे
गाँव की यादो में खो जाता हूँ
और पता भी नहीं चलता 
 कब नींद आ जाती है। 
     




कोलकत्ता
७ नवम्बर, 2009

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