एक समय था जब
एक पाटी और एक बस्ता
हाथ में लेकर बच्चे स्कूल चले जाते थे
पढ़ने के बाद हरे-भरे
मैदानों में खरगोशो की तरह
कुलाचें भरते हुए खेला करते थे
गाँव के साफ सुथरे
रास्तो पर अधनंगे पाँव
धूल उड़ाते, उधम मचाते दौड़ा करते थे
तालाब के किनारे
कपड़े उतार कर सहज भाव से
सामुहिक स्नान कर लिया करते थे
आज इन नन्हे-मुन्ने
बच्चों से उनका भोला भाला
बचपन छीना जा रहा है
उंनीदी आँखों में ही
उनकी पीठ पर दस किलो का
बस्ता लाद दिया जाता है
पुस्तकों के बोझ तले
दबता मासूम बचपन में बुढ़ापे
का अहसास दिलाता है
पुस्तकों के बोझ तले
दबता मासूम बचपन में बुढ़ापे
का अहसास दिलाता है
शाम ढले बच्चा जब
वापस आता है तब तक
वो थक कर चूर हो जाता है
खेलना तो दूर
वो थक कर चूर हो जाता है
खेलना तो दूर
वो आते ही निढाल हो कर
बिस्तर पर गिर जाता है
बिस्तर पर गिर जाता है
आज हम खुद
अपने बच्चों का बचपन
अपने बच्चों का बचपन
घरों से निर्वासित कर रहे हैं
मत छीनो इनका बचपन
उड़ने दो इनको आसमान में
यह बचपन लौट कर नहीं आयेगा।
कोलकत्ता
१४ जुलाई, २०११
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