शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

बसंत



बसंत गावों में
आज भी आता है और
पूरे सबाब के साथ आता है  

सरसों आज भी गदराती है
आम  के पेड़ आज भी बौरातें हैं
बागों में कोयल आज भी गाती है  

भंवरें आज भी गुनगुनाते हैं
मोर आज भी नाचते  हैं
पलास आज भी दहकता है

बसंत गावों में आज भी
पुरे सबाब के साथ आता है
लेकिन महानगरों में बसंत
अब इन रंगों में नहीं आता है

कंकरीट के  जंगल
बनने के बाद बसंत अब यहाँ
केवल बसंत पंचमी  के दिन
प्रतीक रूप में ही आता है 

और शाम  होते- होते    
रिक्शा खींचते,पसीने से तर-बतर
मंगलू की चरमराती छाती से
धौंकनी की तरह निकलती 
गरम-साँसों में मुरझा भी जाता है। 


कोलकत्ता
१४ अक्टुम्बर, 2011

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