बसंत गावों में
आज भी आता है और
पूरे सबाब के साथ आता है
सरसों आज भी गदराती है
आम के पेड़ आज भी बौरातें हैं
बागों में कोयल आज भी गाती है
भंवरें आज भी गुनगुनाते हैं
मोर आज भी नाचते हैं
पलास आज भी दहकता है
बसंत गावों में आज भी
पुरे सबाब के साथ आता है
पुरे सबाब के साथ आता है
लेकिन महानगरों में बसंत
अब इन रंगों में नहीं आता है
अब इन रंगों में नहीं आता है
कंकरीट के जंगल
बनने के बाद बसंत अब यहाँ
केवल बसंत पंचमी के दिन
प्रतीक रूप में ही आता है
बनने के बाद बसंत अब यहाँ
केवल बसंत पंचमी के दिन
प्रतीक रूप में ही आता है
और शाम होते- होते
रिक्शा खींचते,पसीने से तर-बतर
मंगलू की चरमराती छाती से
मंगलू की चरमराती छाती से
धौंकनी की तरह निकलती
गरम-साँसों में मुरझा भी जाता है।
कोलकत्ता
१४ अक्टुम्बर, 2011
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