बारह बर्ष की
बाली उम्र में जब
खेलने-कूदने, पढने लिखने
और मौज मस्ती के दिन थे
उस समय ससुराल में पाँव रखा।
घूँघट में रहना
घूँघट में रहना
कम बोलना, ज्यादा सुनना
मुस्कुराना और काम करना
सब कुछ सीखा।
गृहस्थी को संभाला
बच्चो को पढाया लिखाया
बहुओं और पोते पोतियों को
संभालते सँभालते
शैशव और यौवन
दोनों बीत गये।
हाथो में मेहंदी
लगाते-लगाते
बालो में मेहंदी लगाने
के दिन आ गये।
लेकिन आज वो
अपने पोते-पोतियों
के साथ बैठ कर
अपने बचपन को
फिर से जीने लगी है।
डेंगा-पानी का खेल
गुड्डा -गुड्डियों का खेल
चिरमीयाँ का खेल
उन्हें बताने लगी है।
और ये सब
सुनाते-सुनाते
उसके चहरे पर
एक बार फिर
बारह वर्ष वाली बाली उम्र की
हँसी लौट आती है।
सुजानगढ़
२५ जून, २०१०
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