आगंतुकों का
रजिस्टर देखते हुए
उदघोषक ने मेरा नाम पुकारा
बैकुंठाधिपति के सामने
खड़े होते ही चित्रगुप्त
मुझसे पूछने लगे
मैंने कहा-प्रभु !
मुझसे क्यों पूछते हो
कर्ता- धर्ता तो सबके आप हो
मैं तो निमित मात्र था
कर्णधार और सूत्रधार
तो आप ही हो
तो आप ही हो
आपने ही तो
मुझे इस महानाट्य का
पात्र बनाया था
मुझे इस महानाट्य का
पात्र बनाया था
लीला तो प्रभु
चारों तरफ आप ही की
चल रही थी
मै तो
आपके हाथ का
एक उपकरण मात्र था
आपने जो करवाया
वह मैंने किया
जो बुलवाया वो बोला
वह मैंने किया
जो बुलवाया वो बोला
मुझे तो इस नाटक के
आदि और अन्त का भी
पता नहीं था
आदि और अन्त का भी
पता नहीं था
आप ने ही तो
गीता में कहा था
गीता में कहा था
निमित्तमात्र भव
मैंने भी वही किया
केवल निमित्त मात्र बना
आपका निर्देशित आचरण प्रभु !
अब मुझे
आपका निर्देशित आचरण प्रभु !
अब मुझे
इस कठघरे में खड़ा करके
क्यों पूछ रहे हैं प्रभु ?
क्यों पूछ रहे हैं प्रभु ?
यत्कृतं यत् करिष्यामि तत् सर्वं न मया कृतम्
त्वया कृतं तु फलभुक् त्वमेव रघुनंदन।
त्वया कृतं तु फलभुक् त्वमेव रघुनंदन।
कोलकत्ता
१६ सितम्बर, २०११
१६ सितम्बर, २०११
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