सोमवार, 30 जुलाई 2012

चाँदनी रात


चाँदनी रात में
तुम छत पर खड़ी
अपने बालों को संवार रही थी 


मैं पढ़ रहा था
लेकिन नजर बार-बार
तुम्हारी तरफ उठ रही थी 

तुमने मोनालिसा की तरह
मुस्करा कर पूछा
क्या देख रहे हो ?

तुम्हारी शोख अदाओं को
मैंने कहा-जिन्हें देख सितारे भी
मदहोश हो जाते हैं

और चाँदनी भी शरमा कर
अपना मुँह  बादलों में
छिपा लेती है 

मेरी तो बात ही क्या है  ?
चाँद भी तुमको देखने
बार-बार निचे झांकता है   


और तुमने लज्जाकर
दोनों हाथों से अपने
मुँह को ढाँप लिया  

मानो मेरी
बात को सहज ही
स्वीकार कर लिया। 


कोलकत्ता
२५  अक्टुम्बर, २०१० 

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