चाँदनी रात में
तुम छत पर खड़ी
अपने बालों को संवार रही थी
मैं पढ़ रहा था
लेकिन नजर बार-बार
तुम्हारी तरफ उठ रही थी
तुमने मोनालिसा की तरह
मुस्करा कर पूछा
क्या देख रहे हो ?
मुस्करा कर पूछा
क्या देख रहे हो ?
तुम्हारी शोख अदाओं को
मैंने कहा-जिन्हें देख सितारे भी
मैंने कहा-जिन्हें देख सितारे भी
मदहोश हो जाते हैं
और चाँदनी भी शरमा कर
अपना मुँह बादलों में
छिपा लेती है
अपना मुँह बादलों में
छिपा लेती है
मेरी तो बात ही क्या है ?
चाँद भी तुमको देखने
बार-बार निचे झांकता है
बार-बार निचे झांकता है
और तुमने लज्जाकर
दोनों हाथों से अपने
मुँह को ढाँप लिया
मुँह को ढाँप लिया
मानो मेरी
बात को सहज ही
बात को सहज ही
स्वीकार कर लिया।
कोलकत्ता
२५ अक्टुम्बर, २०१०
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