मंगलवार, 31 जुलाई 2012

मानवी बनो

गंधारी
अपनी आँखों  पर
बन्धी पट्टी को खोलो

तुम असहाय नहीं हो
तुम निरुपाय नहीं हो
तुम अबला नहीं हो

आज का घृतराष्ट्र जन्मांध नहीं है
वो केवल अन्धे होने का
नाटक मात्र कर रहा है

ताकि तुम्हें अपनी
सम्पति समझ छलता रहे
तुम्हे  भोगता रहे

इक्कीसवीं सदी
तुम्हे निमंत्रण दे रही है
मानवी बनने का आमंत्रण दे रही है

उठो अपने आप को पहचानो
मौन की  चट्टान को तोड़ो
तूफानी धारा को  मोड़ो

भ्रस्टाचार का मर्दन करो
स्वार्थ का दहन करो
विजय का नर्तन करो

जब तुम्ह हिम्मत करोगी
तुम्हारी जीत का शंख बजेगा
मिटटी का हर कण तुम्हारी जय बोलेगा ।











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